डॉ. योगेश वाय. सुमठाणे, सहाय्यक प्राध्यापक एवं वैज्ञानिक विभाग, वन उत्पाद एवं उपयोगिता, वन विज्ञान महाविद्यालय बाँदा , कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय बाँदा – 210001 (उत्तर प्रदेश)

सामान्य नाम – बड़ी कटेरी
वनस्पतिक नाम :- सोलेनम इंडिकम
कुल – सोलेनेसी
उपयोगी भाग :- पूरा पौधा, जड़े व फल
सामान्य उपयोगः
अस्थमा, जुकाम, जलोदर, सीने के दर्द, बुखार, पेट दर्द, खांसी, शोक, विंच्छू डंक, पेशाब रूक-रून कर आना एवं पेट कृमि के ईलाज में उपयोगी होता है।
बडी काटेरी यह एक कांटेदार झाडी है जिसकी कई शाखाए होती है। इसकी उचाई 03 – 1.5 मीटर के बीच होती है। पौधे के पत्ते गोल-अंडाकार होते हैं और वे बालों से ढके हो है।
वातावरण एवं मिट्टी :
यह ज्यादा तर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगती है। रेतीली चिकनी मिट्टी और छायादार जगहें इसकी उगाई के लिए उपयुक्त हैं। ऐसे क्षेत्र जहां पेड़ उगाये जाते हैं उनके बीच के स्थानों पर इसे उगाया जाए तो इसकी पैदावार अच्छी होती है।

*प्रजनन सामग्री
बीज व पौधा
* नर्सरी तकनीक
पौधा तैयार करना
- मई-जून में छायादार जगहों में ठीक से तैयार नर्सरी, क्यारियाँ (सान 1० x 1 मीटर) बनाई जाती है।
- जुलाई-अगस्त में 1-1/2 माह पुरानी पौधा खेत में लगाई जाती है।
- खेत में पौधा लगाने की बजाय सीधे बीज भी बोया जा सकता है।
- नर्सरी में क्यारियाँ तैयार करते समय उर्वरक व पॉल्ट्री खाद्य का प्रयोग किया जा सकता है।
- बीज की आवश्कता 4 किलो प्रति हेक्टर होती है।
खेतों में रोपण
भनि तैयार करना और उर्वरक का प्रयोग ।
- भूमि की तैयारी वर्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही कर ली जाती है।
- भूमि की जुताई ठीक से कर ली जाती है और उसमें से सभी खरपतवार निकाल लिये जाते हैं।
- जब भूमि तैयार की जाती है तो उसमें प्रति हेक्टेयर 5 टन उर्वरक मिलायी जाती है।
- खेत में नालियाँ बनाई जाती हैं ताकि पानी उनमें बाहर बह जाए और एकत्र होकर फसल को बर्बाद न करें।
प्रत्यारोपन और पौधों के बीच अन्तर :
- अच्छी तरह से तैयार की गई भूमि में बीजों को सीधे बो दिया जाता है।
- ठीक से अंकुरण के लिए लगभग 20-30 -दिनों का समय लगता है।
- पौधों को लगाने के लिए उनमें 30 x 30 सेंटीमीटर लगते हैं। का अंतर रखा जाता है और प्रति हेक्टेयर लगभग सामना 111000 पौधे
अंतर फसल प्रबंधन / संवर्धन विधियाँ :
- पौधों की प्रजाति फलदार पेड़ो के बीच भी उगाई जा सकती है।
- जब तक पौधे पूरी तरह से उग नहीं जाते 20- 20 दिनों के बाद उनके आस-पास की खरपतवार को निकालना आवश्यक होना है।
सिंचाई :
- फल आने की अवधि (नवम्बर से फरवरी तक़) के दौरान एक दिन छोड़कर नियमित रूप से सिंचाई करना आवश्यक होता है।
- चूंकि यह प्रजाति हर मौसम में (सदाबहार) पायी जाती है, अत: गर्मियों में सिंचाई करना आवश्यक है ताकि पौधे जीवित रहें।
फसल प्रबंधन :
साल अप्रैल तक पक जाती है और रसे काया जा सकता है इस वन प्रजाति 9-10 माह की हो गई होती है।
फसल के बाद का प्रबंधन :
- अप्रैल और मई माह में फलों को तोड़ने व संग्रहण का समय होता है।
- संग्रहित फलों को छाया में सुखकर एसे कन्टेनरो में बाद किया जाता है जिनमें हवा आती-जाती न हो।
- जड़ों को हाथों से बाहर निकाला जाता है और साफ ताजे पानी में साफ किया जाता है।
- निकाली गई जड़ों को कुछ समय तक पहले धूप में और फिर 10 दिन तक छाया में सुखाया जाता है।
- आज इस को विपणन के हेतु कंटेनर में रखा जाता है जिनमें हवा अन्दर-बाहर न जाति हो।
पैदावार :
- प्रति हेक्टर में लगभग 600 किलो फल और 300 किलो बीज ताजा फसल प्राप्त हो जाता है।
- यदि फसल को अगले वर्ष भी रखा जाता है तो प्रति हेक्टर लगभग 20 क्विंटल सुखी जड़े भी प्राप्त हो जाती है।
डॉ. योगेश वाय. सुमठाणे, सहाय्यक प्राध्यापक एवं वैज्ञानिक विभाग, वन उत्पाद एवं उपयोगिता, वन विज्ञान महाविद्यालय बाँदा , कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय बाँदा – 210001 (उत्तर प्रदेश)